यम भाइसाहिब भी मजेदार हैं,
बता कर नहीं आते हैं।
कभी तो दरवाज़े पर खटकाये बिना ही घुस जाते हैं,
और अपना काम करके,
मूछ्चें पोंछते हुए टहल जाते हैं।
और कभी तो इतला दे कर भी इतना वक्त लगा देते हैं
कि इंतज़ार करते करते लगता है कि यों ही दम निकल जाएगा।
कभी तो आते हैं, फिर कह देते हैं
" अभी तो में बहुत व्यस्त हूँ फिर आऊंगा।"
और बैठे रह जाते हैं उनके चाहने वाले, जो कहते हैं
कितना और भुग्ताओगे, मेरे दोस्त?
मियां, तुम दोस्त हो कि नहीं हो?
तुम हमें समझ में नहीं आए।
तुम्हारी समय सारणी भी तो अजीब है।
कभी एक नन्ही सी जान को ले जाते हो,
कभी बड़े बुजुर्गों को तड़पाते हो,
कभी इकट्ठे ही पूरे के पूरे गाँव और शहर, हवाई जहाज़ या रेल,
कुच्छ भी उठा ले जाते हो।
कभी अस्पताल में आँख मिचोली खेलते हो,
कभी कभी डॉक्टर लोगों को थोड़ी देर के लिए जीत जाने देते हो
अजीब हो तुम, मियां।
फिर भी तुम मेरे प्यारे दोस्त हो -
एक न एक दिन आओगे ज़रूर।
I wrote this sometime in December 2000, a few days before my mother-in-law passed away. I published it on this blog in 2009, here: https://dipalitaneja.blogspot.com/2009/11/pondering-yama.html
And now I wonder if Yama had been laggardly with his targets all these years, if his top management is driving him to meet his annual quotas ASAP, if in this vast pressure to meet targets there are no proper parameters, so death is happening in a completely random fashion.
There are only questions. Absolutely no answers.
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